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वि द्वेषां॑सीनु॒हि व॒र्धयेळां॒ मदे॑म श॒तहि॑माः सु॒वीराः॑ ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi dveṣāṁsīnuhi vardhayeḻām madema śatahimāḥ suvīrāḥ ||

पद पाठ

वि। द्वेषां॑सि। इ॒नु॒हि। व॒र्धय॑। इळा॑म्। मदे॑म। श॒तऽहि॑माः। सु॒ऽवीराः॑ ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:10» मन्त्र:7 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:12» मन्त्र:7 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्नि के समान परोपकारसाधक विद्वन् ! आप (द्वेषांसि) द्वेष से युक्त कर्म्मों का त्याग करिये कराइये और (इळाम्) वाणी वा अन्न को (वि) विशेष करके (इनुहि) व्याप्त होओ और हम लोगों की (वर्धय) वृद्धि कीजिये जिससे हम लोग (शतहिमाः) सौ वर्ष पर्यन्त (सुवीराः) अच्छे वीर पुरुषों से युक्त होकर (मदेम) आनन्द करें ॥७॥
भावार्थभाषाः - विद्वानों को चाहिये कि वह कर्म्म करें और करावें, जिससे मनुष्यों के दोषों की निवृत्ति और बुद्धि, बल तथा अवस्था की वृद्धि होवे ॥७॥ इस सूक्त में अग्नि और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह दशवाँ सूक्त और बारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! विद्वंस्त्वं द्वेषांसि त्यज त्याजयेळा वीनुहि। अस्मान् वर्धय यतो वयं शतहिमाः सुवीराः सन्तो मदेम ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वि) विशेषे (द्वेषांसि) द्वेषयुक्तानि कर्म्माणि (इनुहि) व्याप्नुहि (वर्धय) (इळाम्) वाचमन्नं वा (मदेम) आनन्देम (शतहिमाः) शतं वर्षाणि (सुवीराः) शोभना वीरा येषान्ते ॥७॥
भावार्थभाषाः - विद्वद्भिस्तत्कर्म्म कर्त्तव्यं कारयितव्यं च येन मनुष्याणां दोषनिवृत्तिर्बुद्धिबलायूंषि च वर्धेरन् ॥७॥ अत्राग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति दशमं सूक्तं द्वादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वानांनी असे कर्म करावे व करवावे, ज्यामुळे माणसांच्या दोषांची निवृत्ती होऊन बुद्धी, बल व आयुष्य यांची वृद्धी व्हावी. ॥ ७ ॥